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मंगलवार, 23 जुलाई 2013

कुण्डलिया:शिक्षा

कहने को तो दे दिया, शिक्षा  का अधिकार। 
लेकिन दूषित हो रहा, बच्चों का आहार।
बच्चों का आहार, तरीका नहीं स्वदेशी। 
करते वाद-विवाद, सभी हैं इसमें दोषी।
कितने हैं बेहाल, यहीं पर अब रहने दो।
नैतिकता रह गयी, यहाँ केवल कहने को।।


रविवार, 21 जुलाई 2013

रेत पर लिखा

अब तो ज़िन्दगी भी मुझे 

मेरे हाल से पहचानती है
अफ़सोस! मेरे आईने ने
मेरा चेहरा भुला दिया

जहाँ सजते-उजड़ते रहे
कई मेले रिश्तों के
मैंने भी अपनी यादों का
एक कुनबा बसा दिया

लहरें भी नहीं आतीं
इस दिल के समंदर में
मैंने हाथों से ही अपने
रेत पर लिखा मिटा दिया

तेरे बगैर जीने का
जो वादा किया मैंने
झूठी मुस्कानें आज़ाद हैं
अश्कों पे ताला लगा दिया।

जीवन की तरुणाई देखी

कमर हिलातीं बेलें देखीं 

हरी भरी अमराई देखी।

ऊँचे पेड़, पहाड़ देखे
तरण ताल, तराई देखी।

प्राण हरती गरम हवाएँ
पछुआ और पुरवाई देखी।

नयी नवेली प्यारी दुल्हन
विरह में मुरझाई देखी।

बिन सावन जो सूखी रहतीं
नदियाँ भी इतराई देखी।

अषाढ़ का सूखा भी देखा
फसलें भी लहलहाई देखी।

प्रकृति सब उपकार है तेरा
जीवन की तरुणाई देखी।