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मंगलवार, 31 मई 2011

मुझे शांत रहने दो

रोकता हूँ भावनाओं को

जो पल-पल उठती हैं मन में
और रोकता हूँ मन को 
जो भटकता है भावनाओं के वन में 

-शांत हो जाओ तुम सब
मुझे भी शांत रहने दो 
एकांत में ही मैं खुश था 
मन में एकांत रहने दो 

आखिर क्यों उठती हो
मेरे अन्दर तूफान की तरह?
और बहार निकलकर क्यों आना 
चाहती हो इस दुनिया में?
जबकि तुम्हें पता है-
क़द्र यहाँ मिल नहीं सकता
कोई महफ़िल मिल नहीं सकती 
कोई समझने वाला मिल नहीं सकता
कोई मंजिल मिल नहीं सकती

महत्व चाहती हो जितना 
काबिल ही नहीं तुम उसकी
ये बात भी तो तुम मानती नहीं 
लोग बातें करते हैं अपने मतलब की 
तुम्हें अनदेखा करेंगे 
ये बात भी तुम जानती नहीं

क्यों लगता है तुम्हें 
समझा पोगी उन्हें अपनी बात 
जो तुम्हें सुनना भी नहीं चाहते 
क्यों चलना चाहती हो उनके साथ 
जो तुम्हारे आस-पास भी चलना नहीं चाहते 

बाहर जब तुम आओगी
ज़माने की ठोकरें खाओगी 
कभी दुनियां हसेगी तुमपर
कभी तुम अपने होने पर पछताओगी 

अब मान भी लो मेरी बात
शांत हो जाओ तुम सब
और मुझे भी शांत रहने दो.

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